...

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क्या ये मुमकिन नहीं
एक सफर के मुसाफिर,
हम दो थे,
तू भी कहीं से आया,
मैं भी कहीं से आई,
ना जाने क्या भाया,
दोनों साथ चल पड़े,
कुछ वक्त गुजरा,
और फिर हम बेज़ार हो गए,
अपने अपने रास्तों के,
फिर से आगाज़ हो गए,
तो क्या ये मुमकिन नहीं,
कि हम अंत भी,
खुबसूरत करे,
छोड़ सारी शिकायतों को,
अपनी अपनी जगह,
आगे बढ़ने की,
जुर्रत करें......
© --Amrita