...

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"...स्याह से काले रात"
रात के स्याह अंधेरे में जब मैं बिल्कुल अकेला होता हूँ,
तब तुम मुझ तक आती हो जब, मैं बहुत अकेला होता हूँ!
सांसो की सरगोशियों संग तुम भी हर पल जीती हो।।
तब तब तुम आ जाती हो,जब मैं बहुत अकेला होता हूँ!!

अपने सपने को तुम उनींदी में तब तब तोड़े जाती हो,
सारे रिश्ते नातों की गलियां एक पल में छोड़े जाती हो,
डरती हो तुम फिर क्यूँ, सब से सहमी सी क्यो हो जाती हो?
जीवन की वास्तविकता में तुम मुझ तक थोड़े ही आती हो!

अपनी दुनियां अलग हुई, अब संसार हमारा जुदा हुआ,
रस्मो और और रिवाज़ों में अब कोई और तुम्हारा खुदा हुआ,
फिर भी जब जब तुम्हें देखा तो तुम्हारा सर भी होता है झुका हुआ,
मेरी तरह अपने को क्या तुम भी खुद में पाती हो?
तुम तब तब ही क्यूँ आ जाती हो,
जब मैं बहुत अकेला होता हूँ?

एक दिन की सुरमई सुबह थी, तुम सज धज कर यूँ गुज़र गई,
मेरे जेहन के ज़र्रे ज़र्रे में तुम खुशबू बन कर के बिखर गई।
मेहंदी की वो महक न थी,वो तुम्हारी मोहब्ब्त की एक कस्तूरी थी।
मन्दिर में देवी को पूजने की वो विधि भी तो बस...