...

3 views

मनुष्य की महत्वाकांक्षा
#हिंदी साहित्य दर्पण #शीर्षक मनुष्य की महत्वाकांक्षा
स्वरचित - नन्द गोपाल अग्निहोत्री
-------------------------
क्या कहते ये फूल ये भंवरे, पशु-पक्षी क्या कहते हैं ।
कहते हैं क्या वृक्ष लता, जल जन्तु क्या कहते हैं ।।
क्या कहते पर्वत पठार, और ये झरने क्या कहते हैं ।
क्यों बेमौसम ओले पड़ते, पर्वत भहरा कर गिरते हैं ।।
क्यों पृथ्वी श्रृंगार रहित, क्यों प्रकृति इतनी क्रुद्ध हुई ।
क्यों नदियाँ कहीं सूखी सूखी, कहीं जल से त्राहि मची हुई ।।
हे सृष्टि के श्रेष्ठ पुरुष, ये सारे प्रश्न पूछते हैं ।
संकट में सब का जीवन है, खून के आँसू रोते हैं ।।
हे मनुष्य क्या सूझी तुमको, ये तुमने क्या कर डाला ।
पृथ्वी जल आकाश तलक, सभी प्रदूषित कर डाला ।।
अब भी होश नहीं है तुमको, जानी दुश्मन बने हुए ।
सारी सृष्टि लय करने को, ऐटमबम तैय्यार किए ।।
हे मानव क्या सूझी तुमको, तुमने क्यों नफरत अपनाया ।
खुद भी बेचैन रहा करता, दुनिया में दहशत फैलाया ।।
क्यों राह प्रेम की कठिन लगी, क्यों ईर्ष्या में खुद को जलाया ।
पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए क्यों, यह विष वृक्ष लगाया ।।
क्यों अपने से संतोष नहीं, क्यों देख पराए जलता तू ।
अपने से ऊँचे देख किसी को, मन ही मन क्यों कुढता तू ।।
धरती अंबर जल और जंगल, सब से रार करता है तू ।
यह सोच अगर सब क्रुद्ध हुए, तब जाकर कहाँ रहेगा तू ।।
गणित लगा कर देख जरा, कितना खोया कितना पाया ।
हे मानव क्या सूझी तुमको, क्यों तुमने नफरत अपनाया ।।© Nand Gopal Agnihotri