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मुसाफिर...
ढल रही अब शाम यहां,
मुश्किलों का दौर तमाम यहां।
मैं तो एक मुशाफिर हूं,
ढूंढ रहा अपना मुकाम यहां।।
चल पड़ा हूं अजनबी मंजिल ए तलाश में,
थम सा गया धूमिल रोशनी के आभास में।।
कौंध विचार मन में खटक आया,
शायद रास्ता मैं भटक आया।
हो चुका घुमक्कड़ अनजान राहों का,
आगोश लालच के संसार अथक समाया।।
मैं निर्मोही!मुख में नाम खुदा का,
दिल में बैर ,सब में चाह सुधा का।।
तन मानव का भरसक पाया,
ईर्ष्या द्वेष हृदय में हर सक छाया।
छोड़ मोह माया का साया,
सोच चार दिन की जिंदगानी है,,
फिर क्या खोया क्या पाया?।।।
written by (संतोष वर्मा)
आजमगढ़ वाले
खुद की ज़ुबानी
मुश्किलों का दौर तमाम यहां।
मैं तो एक मुशाफिर हूं,
ढूंढ रहा अपना मुकाम यहां।।
चल पड़ा हूं अजनबी मंजिल ए तलाश में,
थम सा गया धूमिल रोशनी के आभास में।।
कौंध विचार मन में खटक आया,
शायद रास्ता मैं भटक आया।
हो चुका घुमक्कड़ अनजान राहों का,
आगोश लालच के संसार अथक समाया।।
मैं निर्मोही!मुख में नाम खुदा का,
दिल में बैर ,सब में चाह सुधा का।।
तन मानव का भरसक पाया,
ईर्ष्या द्वेष हृदय में हर सक छाया।
छोड़ मोह माया का साया,
सोच चार दिन की जिंदगानी है,,
फिर क्या खोया क्या पाया?।।।
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