...

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ग़ज़ल
बस अपने काम का तू तरीक़ा बदल के देख
मंज़िल भी मिल ही जाएगी रस्ता बदल के देख

यूँ कूद जाना ट्रेन से तो हल नहीं है दोस्त
सीटें बदल के देख ले डब्बा बदल के देख

वो देखते ही देखते कितना बदल गया
मैं ने तो यूँ ही उसको कहा था बदल के देख

करनी है गर दुरुस्त ग़ज़ल ज़िंदगी की तो
अपने ख़राब मिसरों को थोड़ा बदल के देख

हर बार पँखा ख़ुदकुशी में टूट जाता है
"रेहान" अब की बार तू पँखा बदल के देख

© Rehan Mirza