स्वतंत्रता सेनानी
*_बिछती हुई विसातों का रुख मोड़ देते हैं_*
*_दुश्मन के छक्के छुड़ा हम सब तोड़ देते हैं_*
*_यूं नहीं कहते मां भारती के लाल हमको_*
*_दहकती दीवारों को भी हम फोड़ देते हैं_*
बढ़ रहा तूफ़ान था , देश रक्त प्रधान था
फिरंगी यूं बढ़ता गया , कुकृत्य वो रचता गया
हो रहा पराधीन था , आर्याव्रत अब क्षीण था
फिर भी पुष्प कुछ बचे रहे , अवसानों से भिड़े रहे
कट रहे थे मर रहे थे , फिर भी न पीछे हट रहे थे
उम्मीदों की डोर पर , अपने ही उन्हें ठग रहे थे
पड़ रही पैरों में बेडी , फिर भी वो न डर रहे थे
लड़ते लड़ते मर रहे थे , फिर भी वो अब भिड़ रहे थे
अब शासन निरंकुश हुआ, 1857 पर थोड़ा अंकुश हुआ
जगी उम्मीदों का फिर से , वध ये कालपोषित हुआ
फिर भी नींव अब हिलने लगी , धरनी धरा ढुलने लगी
कुछ पुष्प अंकित हुए , हृदय पटल में निष्ठा लिए
युद्ध फिर छिड़ने लगे , फिरंगी फिर हिलने लगे
अब जमां ये दौर था , हिंदुस्तान सिरमौर था
फिर इतिहास रक्त रंजित हुआ , जलिया (जलिया वाला बाग हत्याकांड) रक्त पोषित हुआ
कुछ पुष्प बिखर गए , मात्रभूमि पर चढ गए
तूफ़ानों के दौर में , हम भूकंप से अड गए
वो जख्म देते गए , हम घाव सहते गए
हौसलों में फिर से हम , बुलंदियां गढ़ते गए
मात्रभूमि की रक्षा खातिर , प्राण बलि करते गए
बढ़ रहे थे चल रहे थे कदम हमारे दृढ़ रहे थे
लड़ते लड़ते अब सूर्य एक अंकित हुआ
छट गया सारा अंधेरा सूर्य अब उदित हुआ
अंततः 15 अगस्त सन् 47 को देश अब नवनिर्मित हुआ
कुर्बानियों के दौर से , पाया गया बिल्कुल नया
इतनी विसातें झेली हमने , तब वतन ये अनुमोदित हुआ
शहीदों ने चिताएं जलाकर , दिया यह प्रकाश नया
कैसे दें श्रद्धांजलि ,कैसे करें कारनामा नया
शहीदों की कुर्बानियों पर , झुकता है सजदा यहां
_*ये दहकती दीवारें क्या इतिहास बताएंगी*_
_*आजादी के परवानों की गाथा कैसे ये सुनाएंगी*_
_*भारत के उन देश के वीरों का बस गुणगान करती जाएंगी*_
_*बिछ जाएं कितनी भी विसातें धराशाई होकर वीरों का यशगान ही कराएंगी*_
🇮🇳🇮🇳 *जय हिन्द*🇮🇳🇮🇳
© Akash Raghav
*_दुश्मन के छक्के छुड़ा हम सब तोड़ देते हैं_*
*_यूं नहीं कहते मां भारती के लाल हमको_*
*_दहकती दीवारों को भी हम फोड़ देते हैं_*
बढ़ रहा तूफ़ान था , देश रक्त प्रधान था
फिरंगी यूं बढ़ता गया , कुकृत्य वो रचता गया
हो रहा पराधीन था , आर्याव्रत अब क्षीण था
फिर भी पुष्प कुछ बचे रहे , अवसानों से भिड़े रहे
कट रहे थे मर रहे थे , फिर भी न पीछे हट रहे थे
उम्मीदों की डोर पर , अपने ही उन्हें ठग रहे थे
पड़ रही पैरों में बेडी , फिर भी वो न डर रहे थे
लड़ते लड़ते मर रहे थे , फिर भी वो अब भिड़ रहे थे
अब शासन निरंकुश हुआ, 1857 पर थोड़ा अंकुश हुआ
जगी उम्मीदों का फिर से , वध ये कालपोषित हुआ
फिर भी नींव अब हिलने लगी , धरनी धरा ढुलने लगी
कुछ पुष्प अंकित हुए , हृदय पटल में निष्ठा लिए
युद्ध फिर छिड़ने लगे , फिरंगी फिर हिलने लगे
अब जमां ये दौर था , हिंदुस्तान सिरमौर था
फिर इतिहास रक्त रंजित हुआ , जलिया (जलिया वाला बाग हत्याकांड) रक्त पोषित हुआ
कुछ पुष्प बिखर गए , मात्रभूमि पर चढ गए
तूफ़ानों के दौर में , हम भूकंप से अड गए
वो जख्म देते गए , हम घाव सहते गए
हौसलों में फिर से हम , बुलंदियां गढ़ते गए
मात्रभूमि की रक्षा खातिर , प्राण बलि करते गए
बढ़ रहे थे चल रहे थे कदम हमारे दृढ़ रहे थे
लड़ते लड़ते अब सूर्य एक अंकित हुआ
छट गया सारा अंधेरा सूर्य अब उदित हुआ
अंततः 15 अगस्त सन् 47 को देश अब नवनिर्मित हुआ
कुर्बानियों के दौर से , पाया गया बिल्कुल नया
इतनी विसातें झेली हमने , तब वतन ये अनुमोदित हुआ
शहीदों ने चिताएं जलाकर , दिया यह प्रकाश नया
कैसे दें श्रद्धांजलि ,कैसे करें कारनामा नया
शहीदों की कुर्बानियों पर , झुकता है सजदा यहां
_*ये दहकती दीवारें क्या इतिहास बताएंगी*_
_*आजादी के परवानों की गाथा कैसे ये सुनाएंगी*_
_*भारत के उन देश के वीरों का बस गुणगान करती जाएंगी*_
_*बिछ जाएं कितनी भी विसातें धराशाई होकर वीरों का यशगान ही कराएंगी*_
🇮🇳🇮🇳 *जय हिन्द*🇮🇳🇮🇳
© Akash Raghav