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काका रमई और काकी
काका रमई चलेन गुस्सा मा,
कहेन न छोड़ब बुढ़िया का।
आज बन के बादर हम फाटब,
चढ़ी है जउन खोपड़िया मा।

काकी देत रहिन चारा बरधा का,
काका पहुंचेन शान से।
लै के लाठी, खोंस अंगउछा,
बोलेन मोछा तान के।

कूदि– कूदि गुस्सा मा काका,
पीड़ा आपन काहत रहेन।
जान रही शरीरी मा नै,
बेचारू अबे तक सब सहत रहेन।

काकी ठाढ़े थामे रस्सा,
सुनत रहिन सब सुनत रहिन ।
पकरिन फिर काका के गटई,
मोहना से न कुछू कहिन।

खड़ा रहन बरधा खेते मा ,
लइ के ओहके पास गइन।
दाब खोंच काका के मुंह मा,
संगे औहके बांध दिहिन ।

बिचरू काका बंधा रहेन,
फिर काकी दिहिन बरधा का नाध।
लइ के हमरे काका का फिर,
ऊ पूरे खेतन मा भाग।


सोंटा दिहिन बसोटा मा जब,
भागेन काका मारि गोहार।
कहेन कि लाया न मेहरारू ,
लाया तौ न किहा तकरार।
😂😂🙏😂😂
–ध्रुव
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चारा = घास–फूस, भूसा
बरधा = बैल
अंगउछा = गमछा
ठाढ़े = खड़े
खोंच = रस्सी का जालीदार अवरोधक
जिसे खेत जोतते समय बैल के मुंह पर बांध देते थे
ताकि वह काम के समय खाने मे न लग जाए।
सोंटा = लाठी
बसोटा = नाक
गोहर = गुहार
मेहरारू = औरत , स्त्री , पत्नी
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© हरिदास