...

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स्टेशन
कभी सन्नाटा ,कभी शोरगुल ,
कभी खड़खड़ाहट से कान गुल,
रात पहुंच भी आंख जाये खुल ,
हो जाये कभी स्थान सारा फुल
उतरे- चढ़े, एक से दूजे पुल।
दिवामध्य बैठ ,देखे सब छुप
ताके सबको होकर स्वयं चुप
पल भर मे जन से जाये घुल
गंतव्य पहुंचने को सब व्याकुल
करे इंतजार सबके संग , खुद ।
सुबह- शाम चाहे जाये धुल
पदचिह्न विभूषित होता फिर फुल ।
थकान से किसी की बत्ती है गुल
सफर पर जाने को कोई आतुर
सरकारी प्रापर्टी यह सबको मालूम
बिन किराए का फिर भी है फुल।
(स्टेशन)




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