...

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इज़्तिराबी
मेरी काव्य की तारीफ करते हो तुम मुस्कुराते हुए,
फ़िर भी हाल-ए-दिल तुम क्यों सुनाते नही ।
क्या चैन मिलता है तुम्हें हमको तड़पाते हुए ?
मोहब्बत ना होती तुझसे तो यूहीं जवानी बिताते नही।
वो इश्क़ का जर्रा छेड़ कर कर दिया खुद से दूर,
पनप कर मुझमें ही खोखला कर दिया मुझे,
अंधेरे में छोड़ पूछा भी नही और कभी कहते थे मुझे अपना नूर,
क्या वफा कभी रहने देगी अपने साथ तुझे ?
तेरे ख़याल में भिकर गया हूँ इतना की हकीकत से सामना होता नहीं,
तेरे इश्क़ में ख़ूब लुटे हम, अब किसी पर भरोसा होता नहीं,
तुझे समझने में देर हो गई, मानता हूँ कसूर मेरा है,
फ़िर भी जब झाकू भीतर तो ज़हूर तेरा है।
माना ना होता मुझें एक खेल खुद के लिए तो समझते,
जिसको बर्बाद किया तुमने उससे नज़र मिलाने सें ना डरते।
कह सकते हैं हूँ मै एक दर्द सें सराबोर नग़मा,
गुज़रते वक़्त के साथ बेचैनी बढ़ती और होतीं कम ना।
इस तड़प में ना चाहतें हुए भीं रम गए है हम,
हा मंजूर हैं तेरे धोके से थम गए है हम।
तू किसी और को कशिश मै कैद करने को होगी तैयार,
कर भी क्या सकता हूँ मै, हो गया हूँ इज़्तिरार ।
हो जाएगा वों बेशक़ धूल,
सीखने जो आया तुझसे वफाई का उसूल।



© Swarnim Anand