...

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ग़ज़ल
रक्खा क्या ही है ऐसे जीने में
आग जब लग रही हो सीने में

जाम भी बिन तेरे लगे फ़ीका
साथ तेरे मज़ा है पीने में

मुझको पत्थर नहीं नगीना कहो
इक अलग बात है नगीने में

दर्द अपना तुम्हें बताऊँ क्या
लौटता है हरिक महीने में

नेक इंसान बन रहे हो तुम
यानी जा आये हो मदीने में

तूफ़ाँ का अब नहीं है डर कोई
ना-ख़ुदा साथ है सफ़ीने में

सामना जब हुआ मेरा ख़ुद से
तर-बतर हो गया पसीने में

रूह बेचैन है ख़ुदा के लिए
जिस्म मसरूफ़ है क़रीने में

लौट आओ "सफ़र" से वापस तुम
जाँ निकलती है तन्हा जीने में
© -प्रेरित 'सफ़र'