...

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सोचो ज़रा तुम क्षण भर
जब कभी कोई उम्मीद ना दिखे तुमको कण भर
करके बंद अपनी आँखें सोचो जरा तुम क्षण भर

क्या है ऐसा जहाँ में जिसे इंसान ने नहीं करा है
क्या मीलों दूर चाँद पर इसने कदम नहीं धरा है

चलो उठो दोस्त ।मन से ये हार तुम निकाल दो
बहुत डर लिए , अब रूप तुम नया विकराल लो

आज इस पसीने को लहू में तुम अपने मिला लो
पथरीली क़िस्मत में भी गुल मेहनत से खिला दो

लड़ने को क़िस्मत से तुम ख़ुद को तैयार कर लो
पुरुषार्थ की पतवार से नदी हार की पार कर लो




© Dhruv