#खुलीखिड़कियाँ
#खुलीखिड़कियां
कहीं दूर गाँव में, बिना पर्दों की खिड़कियों वाला एक कच्चा मकान था। इस मकान में रामू अपने परिवार के साथ रहता था। उनके पास ज्यादा संपत्ति नहीं थी, लेकिन मेहनत करने का जज्बा उनके पास अनमोल था। सुबह की पहली किरण के साथ ही रामू और उसकी पत्नी शांता खेतों में काम करने निकल जाते थे।
मकान के बिना पर्दों की खिड़कियाँ गाँव के लोगों के लिए चर्चा का विषय बनी रहती थीं।
वे कहते, "रामू, पर्दे क्यों नहीं लगवाते? इससे तो मकान में हवा भी नहीं आती होगी।"
रामू हंसकर जवाब देता, "अरे भाई, हवा तो है, बस हम उसे पकड़ नहीं पाए। और जहाँ तक पर्दों का सवाल है, हमें लगता है कि इस तरह हम अपनी गरीबी को छिपा नहीं सकते।"
शाम होते ही रामू और शांता अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ मिलकर दिनभर की मेहनत की कमाई से रूखी रोटी बनाते। रोटी का एक-एक टुकड़ा उनके लिए असीम खुशी और संतोष का कारण बनता।
वे कहते, "देखो भाई, हमारी मेहनत की ये रोटी हमें किसी अमीर की बिरयानी से ज्यादा स्वादिष्ट लगती है।"
गाँव के लोग अकसर व्यंग्य करते, "रामू, इतने दिनों की मेहनत के बाद भी तुम सिर्फ रूखी रोटी ही बना पाते हो?"
रामू मुस्कराता और कहता, " भाई, हमारे बिना पर्दों की खिड़कियों से गुजराती हवा में हमारा स्वाद भी बेमिसाल हो जाता है।"
इस तरह, रामू और उसका परिवार अपनी कठिनाइयों में भी खुश रहते थे और अपनी जिंदगी की रूखी रोटी में भी आनंद ढूंढते थे। वे जानते थे कि सच्ची खुशी मेहनत और संतोष में ही है, न कि पर्दों और विलासिता में।
रामू और शांता की मेहनत और संतोष का किस्सा धीरे-धीरे गाँव में फैल गया। लोग उनके बिना पर्दों की खिड़कियों और रूखी रोटी के मजाक करने से रुक गए और उनकी ज़िंदगी को प्रेरणा के रूप में देखने लगे।
एक दिन, गाँव के मुखिया ने एक सभा बुलाई और रामू को सबके सामने बुलाया। मुखिया ने कहा, "दोस्तों, रामू और शांता ने हमें सिखाया है कि सच्ची खुशी और संतोष मेहनत और ईमानदारी में है, न कि भौतिक सुख-सुविधाओं में।"
रामू ने मुस्कुराते हुए कहा, "हमारी...
कहीं दूर गाँव में, बिना पर्दों की खिड़कियों वाला एक कच्चा मकान था। इस मकान में रामू अपने परिवार के साथ रहता था। उनके पास ज्यादा संपत्ति नहीं थी, लेकिन मेहनत करने का जज्बा उनके पास अनमोल था। सुबह की पहली किरण के साथ ही रामू और उसकी पत्नी शांता खेतों में काम करने निकल जाते थे।
मकान के बिना पर्दों की खिड़कियाँ गाँव के लोगों के लिए चर्चा का विषय बनी रहती थीं।
वे कहते, "रामू, पर्दे क्यों नहीं लगवाते? इससे तो मकान में हवा भी नहीं आती होगी।"
रामू हंसकर जवाब देता, "अरे भाई, हवा तो है, बस हम उसे पकड़ नहीं पाए। और जहाँ तक पर्दों का सवाल है, हमें लगता है कि इस तरह हम अपनी गरीबी को छिपा नहीं सकते।"
शाम होते ही रामू और शांता अपने छोटे-छोटे बच्चों के साथ मिलकर दिनभर की मेहनत की कमाई से रूखी रोटी बनाते। रोटी का एक-एक टुकड़ा उनके लिए असीम खुशी और संतोष का कारण बनता।
वे कहते, "देखो भाई, हमारी मेहनत की ये रोटी हमें किसी अमीर की बिरयानी से ज्यादा स्वादिष्ट लगती है।"
गाँव के लोग अकसर व्यंग्य करते, "रामू, इतने दिनों की मेहनत के बाद भी तुम सिर्फ रूखी रोटी ही बना पाते हो?"
रामू मुस्कराता और कहता, " भाई, हमारे बिना पर्दों की खिड़कियों से गुजराती हवा में हमारा स्वाद भी बेमिसाल हो जाता है।"
इस तरह, रामू और उसका परिवार अपनी कठिनाइयों में भी खुश रहते थे और अपनी जिंदगी की रूखी रोटी में भी आनंद ढूंढते थे। वे जानते थे कि सच्ची खुशी मेहनत और संतोष में ही है, न कि पर्दों और विलासिता में।
रामू और शांता की मेहनत और संतोष का किस्सा धीरे-धीरे गाँव में फैल गया। लोग उनके बिना पर्दों की खिड़कियों और रूखी रोटी के मजाक करने से रुक गए और उनकी ज़िंदगी को प्रेरणा के रूप में देखने लगे।
एक दिन, गाँव के मुखिया ने एक सभा बुलाई और रामू को सबके सामने बुलाया। मुखिया ने कहा, "दोस्तों, रामू और शांता ने हमें सिखाया है कि सच्ची खुशी और संतोष मेहनत और ईमानदारी में है, न कि भौतिक सुख-सुविधाओं में।"
रामू ने मुस्कुराते हुए कहा, "हमारी...