...

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सृष्टि की अभिदृष्टि कैसी?
मैं तो भव में पड़ा हुआ ,
भव सागर वन में जलता हूँ,

ये बिना आमंत्रण स्वर कैसा ,
अंतर में सुनता रहता हूँ?

जग हीं शेष है बचा हुआ.
चित्त के अंदर बाहर भी,

ना कोई है सत्य प्रकाशन ,
कोई तथ्य उजागर भी।

मेरे जीवन में जो कुछ भी,
अबतक देखा करता था,

अनुभव वो हीं चले निरंतर,
जो सीखा जग कहता था।

बात हुई कुछ नई नई पर ,
ये क्या किसने है बोला ?

अदृष्टित दृष्टि में कोई ,
प्रश्न वोही किसने खोला?

मेरे हीं मन की है सारी,
बाते कैसे जान रहा?

ढूंढ ढूंढ के प्रश्न निरंतर,
लाता जो अनजान रहा?

सृष्टि की अभिदृष्टि कैसी,
सृष्टि का अवसारण कैसा?

ये प्रश्न रहा क्यों है ऐसा,
अदृष्टित का सांसरण कैसा?

अजय अमिताभ सुमन