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महाभारत - नारायण तृप्त तो नर संतृप्त
द्वादश- वर्षीय अज्ञातवास,
पांडव ने किया वन में प्रवास।
दुर्योधन ने चली विकट चाल,
भ्राताओं के विरुद्ध भवजाल।
दुर्वासा अरु अन्य मुनि कोपी,
भेजिही भ्रातृजनों की कोठी।
तदुपरांत ऋषि विविध बुलाई,
संग सभी मुनि गए नहाई।
द्रौपदी की स्थिति विषम हो आई,
दुर्वासा द्रुत जाए रूसाई।
अक्षयपात्र इक बारि पखारा,
भोज ना आवे उहां दुबारा।
पांचाली ने तब नारायण का,
स्मरण किया प्रभु कमलनयन का।
कोठी बाहर पुनः ज्यों हि निहारा,
चले आ रहे करुणावतारा।
बोले क्षण में माखनचोरा,
भोज तनिक करवाओ मोरा।
छलिया का छल समझ न पाई,
सुनी द्रौपदी गई रुसाई।
बोली नाथ ये विपदा कैसी,
नजरियाई दियो कौन सो द्वेषी।
सुबह दियो है पात्र पखारि,
मुनि को काही परोसु मुरारी।
फिर वासुदेव बोले भगिनाई,
पात्र इधर तनि लाओ दिखाई।
लिए पात्र और हाथ घुमाया,
दाना एक चावल का आया।
खाए प्रभु ने डकार लगाई,
सृष्टि सकल संतुष्ट हो आई।
बोले प्रभु सुत पार्थ प्रवीणा,
जाओ मुनि सभी लाओ बुलाई,
कुटि में आए आहार ले खाई,
मुनि सभी लेटे पांव पसारि,
हम आवेंगे अगली बारी,
सुखी रहो पांडव, पांचाली,
उदर हो गया तनिक है भारी,
धनुर्धारी भए बड़े विस्मृत,
नारायण तृप्त तो नर संतृप्त।
© metaphor muse twinkle