...

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जीता हूँ एक रणछोड़ सा

तू निकली चंचल पतंग सी,
मैंने रह गया कटी डोर सा,
तू बह निकली नदी के धार में,
मैं देखता रह गया किसी छोर सा।
मुझसे आज दूर है तू पर,
मेरी नजरों से कतई नहीं,
आज भी ताकता राह तेरी,
किसी बेबस चित चोर सा।
क्या जिक्रे फ़िराक हो आज,
मेरी इस अनबुझी प्यास का,
डूबा है शहर सारा तर बतर,
बरस रहा ये बादल जो घनघोर सा।
तेरी यादों के सहारे जीता हूँ आज भी,
मरते दम तक साथ रहने का वादा जो था,
चाहत है फिर से पा लूं तुझे लेकिन,
दूरी है किस्मत में चाँद और चकोर सा।
वैसे तो बाहों में थी तू मेरे मगर,
दूर इस जहाँ से क्यों चली गयी,
लाचार, बेबस सा रोता हूँ आज भी,
जीता हूँ तेरी याद में एक रणछोड़ सा।


© ✍️शैल