कुछ समय से
कुछ समय से ये
अनिश्चित फाँसला
यूँ ही ज़हर सा
हो गया है।
बार बार, हर बार
एक ही रट लगा रखी है,
आखिर क्यों सब कुछ
बदला बदला सा
महसूस होने लगा है।
इरादों की दाल में भी
कुछ काला नहीं था,
फिर भी अपना कोई आज
अनजान सा लगने लगा है।
कुछ समय से ये
अनिश्चित फाँसला
यूँ ही ज़हर सा
हो गया है।
ना हवेली की चाबी है,
ना ही रखवाल की उपाधी है,...