हे पुरुष! तुम रोना..
सुनो युगपुरुष!
स्त्री हमेशा यह नहीं चाहती
कि तुम हर हालात में अचल-से स्थिर रहो,
तुम्हारे मन की पीड़ा लावे की तरह जमकर
कठोर हो जाए,
बल्कि स्त्री यह चाहती है कि
जब तुम्हारे मन के संवेग फूट पड़ने के लिए रास्ता माँगें,
तो स्त्री तुम्हें आँचल का सहारा दे
और तुम्हें जीवन की सुगमता की ओर
हाथ पकड़कर ले चले।
तुम्हें अपने रोने पर यह लगेगा कि
जैसे तुमने पुरुषत्व की सीमाएँ तोड़ दी...
स्त्री हमेशा यह नहीं चाहती
कि तुम हर हालात में अचल-से स्थिर रहो,
तुम्हारे मन की पीड़ा लावे की तरह जमकर
कठोर हो जाए,
बल्कि स्त्री यह चाहती है कि
जब तुम्हारे मन के संवेग फूट पड़ने के लिए रास्ता माँगें,
तो स्त्री तुम्हें आँचल का सहारा दे
और तुम्हें जीवन की सुगमता की ओर
हाथ पकड़कर ले चले।
तुम्हें अपने रोने पर यह लगेगा कि
जैसे तुमने पुरुषत्व की सीमाएँ तोड़ दी...