...

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हे पुरुष! तुम रोना..
सुनो युगपुरुष!
स्त्री हमेशा यह नहीं चाहती
कि तुम हर हालात में अचल-से स्थिर रहो,
तुम्हारे मन की पीड़ा लावे की तरह जमकर
कठोर हो जाए,

बल्कि स्त्री यह चाहती है कि
जब तुम्हारे मन के संवेग फूट पड़ने के लिए रास्ता माँगें,
तो स्त्री तुम्हें आँचल का सहारा दे
और तुम्हें जीवन की सुगमता की ओर
हाथ पकड़कर ले चले।

तुम्हें अपने रोने पर यह लगेगा कि
जैसे तुमने पुरुषत्व की सीमाएँ तोड़ दी हैं,
आकाश के टुकड़े-टुकड़े हो गए हैं
और धरती के रसातल में जीवन
अपना मुँह छुपाए बैठ गया हो,
समाज की परिपाटी टूटने का भ्रम तुम्हें हीन महसूस कराएगा।

यह झूठ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है कि
स्त्री कमज़ोर है या वह तुम्हारी भावना नहीं समझेगी
अथवा तुम्हें जीवन की जंग लगी कड़ी कहेगी।
जबकि वास्तविकता तो यह है कि
कमज़ोर वक्त में तुम्हारे आँसू दोनों के ह्रदय-मिलन में
सेतु की भूमिका निभाएंगे।

इसलिए हे युगपुरुष!
तुम रोना..जब तुम्हें रोना आए
क्योंकि जितना हँसना नैसर्गिक क्रिया है
उतना ही नैसर्गिक है रोना...!

-सीमा शर्मा 'असीम'

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© ©सीमा शर्मा 'असीम'