...

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यश भी तो अधिकतर अधिकार संपन्न व्यक्ति के हिस्से में आता है...
क्या था जीवन वो भी
पुराने समय में स्त्री का,
लोगों में समाज के लिए
जो होतीं थी संवेदनाएँ
वो घर पर पत्नी तक आ के
कहाँ चली जातीं थीं !
सरल ,सहज, सहृदय पति
अधिकार, वर्चस्व का आवरण
ओढ़े क्या दर्शाना चाहते थे!
उन्हें ज्ञात ही नहीं था कि
एक ख़ामोश आक्रोश
कहीं घर कर बैठा है सदियों से
उनके विरूद्ध वहीं..जो मन
पलक पावड़े बिछाता रात-दिन...
वो मासूम विवाहिताएँ
कब मासूम बाल विधवाएँ
बन जातीं, उन अनदेखे अंजाने
पतियों के नाम पर संताप
जिनका भाग्य हो जाता...
दो वक़्त की रोटी के लिए
अधूरी आकांक्षाओं, अतृप्ति का
बोझ ढ़ोना और जीते रहना बस...
उस पर भी कोई उदारवाद
कोई ममता, प्रशंसा की
हक़दार नहीं,
बस यशगान करते रहना
उस अधिपति का जिसका
संग साथ मिला ही नहीं,
सधवाओं की स्थिति भी वही
सृजन-यात्रा की मुख़्य अधिष्ठाती
होकर भी स्वयं को निकृष्ट
और सेविका मान अभिशप्त
स्त्रीत्व, पत्नीत्व, सच है ये यश
भी तो अधिकतर अधिकार संपन्न व्यक्ति के हिस्से ही आता है....
--Nivedita