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मल्हार
एक पंछी अगणित नभ
में उड़ रही आजा़द थी;
उड़ते- उड़ते सांझ हुई जब
बैठ गई ईक डाल पर।
रूक कर वहीं मधुर मिलन
की गा रही मल्हार थी;
आँख खुली तो सिहर उठी
अपनी हीं संताप पर।
देर हुई रीते रीते नैन से
जो देख रही थी ख्व़ाब थी।।
© Ritu Verma ‘ऋतु’
में उड़ रही आजा़द थी;
उड़ते- उड़ते सांझ हुई जब
बैठ गई ईक डाल पर।
रूक कर वहीं मधुर मिलन
की गा रही मल्हार थी;
आँख खुली तो सिहर उठी
अपनी हीं संताप पर।
देर हुई रीते रीते नैन से
जो देख रही थी ख्व़ाब थी।।
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