...

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अंजान
ना जाने हम अंजान क्यूं है,
जैसे महताब तलाशते ये आसमान क्यूं है।

सहम ‌जाता हूं तेरे दीदार से मगर,
तेरी खुशबू से महके ये अरमान क्यूं है।

तेरे ख्वाब भी किसी ख्वाब से कम तो नही,
तेरी कशिश मुझपे यूं मेहरबान क्यूं है।

आशिक़ी पर आता तो नहीं ऐतबार अब,
दस्तक दे रही फिर कोई नई दास्तान क्यूं है।

इन गलियों ने ग़ारत मे भेजा है मुझे,
लगरहा तूं कोई अलग इंसान क्यूं है।

इम्कान है अगर इस मंज़िल का तो,
'आहिल' तूं हो रहा बेजुबान क्यूं है।

© Hunting my Forgotten