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एक लड़का था पहचाना सा
एक लड़का था पहचाना सा
एक लड़की पर वो मरता था
कभी छुप के कभी ज़ाहिर कर के
उसको चिट्ठियां लिखा करता था
इजहारे मुहब्बत करना था शायद
मगर महबूब की रुसवाई से डरता था
इसलिए नाम कभी ना ज़ाहिर करता
खतों के आख़िर में ध्यान से
"तुम" लिख दिया करता था

हर कागज़ पर तुम तुम लिखता
वो शब्दों की मूर्तियां बनाता था
कोई मूर्ति दबी सकुचाई
कोई नटखट झल्ली सी
कोई खड़ी किसी क्रान्ति सी
कोई नाज़ुक तितली सी
पर एक ख़ास थी मूर्ति कवि की
इक्का दुक्का दिल का टुकड़ा नहीं
दग्ध हृदय साबुत उस रवि की
अनंत भावनाओं से सनी
सुंदर मुंदर बनी ठनी
कवि कि की जीवंत कल्पना
कवि की कल्पना में जी उठी
कवि जो अब तक था ध्यान मग्न
थी उसकी तंद्रा टूट चुकी

अब शब्दों की उन मूर्तियों को
बाज़ार या फुटपाथ पर नहीं
हृदय के गर्भगृह में...