...

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मुझपर ही मेरे दुश्मन का इश्तिहार छपा है.....
कोरे काग़ज़ की राख बना कर पूछो
उसमें क्या छिपा है
उसने कितने ख्वाबों को जिया है
कितने दर्दों को पिया है
कितना वो सुलझा
और उलझा है
अखिर कार विलुप्तता की कगार पर वो
आज केसे खड़ा है
फिर आज एक नया बजार सजा है
जहाँ कहीं एक कोने में मुझपर ही मेरे दुश्मन का इश्तिहार छपा है.....
© meetali