...

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" शहादत ए मुहब्बत "
जब जब आशिक़ों को
दुनियां ने दर्द ए सितम ढाएं हैं
छिन गई मुहब्बत चली गई जां
निसार हो गई सारे ज़माने की खुशियां
हीर रांझे के ज़माने से चली आ रही है
नफ़रत की वो बगावत
दो सच्ची वफ़ाओं को जीने न दिया
लैला मजनू मुहब्बत के पीर समझे जाते थे
उन्हें भी शहादत ए मुहब्बत मिली
दुश्मन है ज़माना मुहब्बत और नेकी की
कितनों ने अपनी जां की क़ीमत चुकाई है।
झूठी शान शौकत दिखाने वाले
मुहब्बत को नाचीज़ समझते हैं
मुहब्बत को इक बदनाम समझते हैं
सच्ची मुहब्बत तो ख़ुदा नेक ओ करम है।
अभी और कितनी शहादत ए मुहब्बत
झूठे समाज को देना होगा
क्या इनके मासूम लहू से
अपनी नफ़रत की प्यास बुझाओगे
अभी और कितनी चिताएं जलाओगे।
क्या जब तलक दुनियां है
तब तक शहादत ए मुहब्बत होना पड़ेगा
क्यूं जलाते हो दो दिलों के ज़ज़बात को
क्यूं आग लगाते हो मुहब्बत की बस्ती में।

'Gautam Hritu'






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