ग़ज़ल
थोडे़ थोडे़ से मैं ज़ियादा हो जाऊँगा
आज इक कतरा हूँ कल दरिया हो जाऊँगा
मुझ पर से होकर इक दिन दुनिया गुजरेगी
पत्थर पत्थर से मैं रस्ता हो जाऊँगा
गावों में मैं रोटी जैसे दिखता हूँ पर
शहरों में जाने पर पिज़्ज़ा हो जाऊँगा
तुम बस बच्चा बनकर तो देखो फिर मैं ही
नानी हो जाऊँगा किस्सा हो जाऊँगा
दो आँखों में भटक गया हूँ मैं ख़ुद ही और
लोगों से कहता था नक्शा हो जाऊँगा
तेरे चेहरे पर आँखों से लिखते लिखते
मैं भी उल्फ़त का इक चेहरा हो जाऊँगा
तन्हाई में साथ मिरे है तन्हाई ही
बिन तन्हाई के मैं तन्हा हो जाऊँगा
आप अँधेरा मुझको लौटा दिजिए साहब
रौशनी में मैं इक दम अंधा हो जाऊँगा
सूखे पेड़ों को जब काटा जाता 'जर्जर'
इक न इक दिन मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा
आज इक कतरा हूँ कल दरिया हो जाऊँगा
मुझ पर से होकर इक दिन दुनिया गुजरेगी
पत्थर पत्थर से मैं रस्ता हो जाऊँगा
गावों में मैं रोटी जैसे दिखता हूँ पर
शहरों में जाने पर पिज़्ज़ा हो जाऊँगा
तुम बस बच्चा बनकर तो देखो फिर मैं ही
नानी हो जाऊँगा किस्सा हो जाऊँगा
दो आँखों में भटक गया हूँ मैं ख़ुद ही और
लोगों से कहता था नक्शा हो जाऊँगा
तेरे चेहरे पर आँखों से लिखते लिखते
मैं भी उल्फ़त का इक चेहरा हो जाऊँगा
तन्हाई में साथ मिरे है तन्हाई ही
बिन तन्हाई के मैं तन्हा हो जाऊँगा
आप अँधेरा मुझको लौटा दिजिए साहब
रौशनी में मैं इक दम अंधा हो जाऊँगा
सूखे पेड़ों को जब काटा जाता 'जर्जर'
इक न इक दिन मैं भी बूढ़ा हो जाऊँगा