...

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लकीरें
मनुष्य लकीरें हैं..
आड़ी टेढ़ी लकीरें,
बस यूं ही खींच दी गईं
समय के पटल पर..

प्रतिच्छेदी रेखाओं की तरह,
कुछ के रास्ते काटते परस्पर;
कुछ थोड़ी सी लचीली,
घूमकर चली जाती
आस-पास से,
अपने रास्ते की तलाश में..
कुछ, दूसरों से बड़ी होने के
प्रयत्न में जुटी,
बढ़ाती जाती अपना कद;
कुछ काट कर करती जाती
दूसरों को बौना..

कुछ परिधि में बंध कर
घूम रहीं अपनी धुरी पर,
अनंत कोने लिए
हर दिशा से संतुलन में..
कुछ नियत कोने लिए
मानकों से बंधे,
नियति में ढले हुए..
हर लकीर अपना किस्सा,
अपनी अलग कहानी लिए..

नई लकीरें जुड़ने से
बदल जाते हैं किरदार..
नई पहचान के साथ बनता
एक नया नियम,
नए स्वरूप में सृजित होती
प्रकृति की एक नई रचना
एक नई कहानी लिए..
बिंदु से रेखा से वृत्त तक,
असंख्य रूपों का सफर
किसी एक साल के
गुजरने के साथ खत्म नहीं होता,
जारी रहता है नव सृजन,
होता है पुनर्जन्म
हर कहानी का..

इसी तरह
एक दूसरे से उलझी,
अपने दिशा काल में,
अपनी अपनी जगह पर,
खींची हुई इन्हीं लकीरों का
मकड़जाल ही तो है दुनिया..
या सारी लकीरों को बुनकर
बनी एक कहानी,
कूची चलाकर उतार दिया हो जिसे
किसी ने धरती के कैनवास पर..

हम और तुम भी हैं,
इसी के बीच कहीं,
दो लकीरों की तरह,
दो कहानियां समानांतर..
अनवरत अपने सफर पर
क्या मिलेंगी अनंत पर..??


© आद्या