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एक असम्भव प्रेम गाथा अनन्त में अन्त की ओर ।।
लेखक अपनी इस गाथा में कहता फिरता,
ये जग वैशयाओ का मेला है,
सत्री का तन मनु का मन डोल गया,
जिससे जन्मा उसी के तन की हवस का बौराया,
नायक यह रचना करता है,
कि वैशया के साथ संबंध बनाने वाला हर व्यक्ति बुरा नहीं होता मगर जिसमफरूह जरूर होता है,
वेशया की तो मज़बूरी है मगर तेरी,
तेरी जिसमफरूह की क्या मजबुरी है,
उसकी तो यह ख्वाहिश है -लेखक -वासुदेव।।
लेखक द्वारा प्रशनवाचक ने अपनी औरतों का वर्णन किया है -वासुदेव श्रीकृष्ण मुख्य अतिथि।

दर्शालूओ द्वारा यह सुनने अतिआवश्यक है कि और सी स्त्रियां पराई तथा कौन अपनी होती है और किस स्त्री का क्या प्रेम भोग तथा क्या मरियादाए है यह जनना बहुत की अतिआवश्यक है, क्योंकि मनु काभी अपनी स्त्रियों के भोग तथा पराई स्त्री के भोग भोग नहीं पहचान पाते जिस उनके द्वारा यह गाथा अनन्त ही बनकर कालचकृ को ही प्राप्त हो जाती है और वो स्वर्ग नाई योनि में जाकर जीवन की सजा काटते ही रह जाते हैं,।।
जिसके स्त्री अपने अस्तित्व तथा इज्जत पूर्णतः कर्म पूर्ण करके भी काभी बैठकुन्धाम मोक्ष को प्राप्त करके अपने अस्तित्व को प्राप्त नहीं हो सकती है।। क्योंकि सत्री ही श्रृष्टि के कर्मों का खेल है जो कालचकृ द्वारा संचालित मिशन है।
जो समय है अर्थात श्रीं हरि विष्णु नारायण है।
#सत्यमेव में विजेयता।।

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