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विभावरी_तन्हाइयों_में_गुज़र_रही_है
ये हसीन विभावरी क्यों तन्हाइयों में गुज़र रही है
करवटों के साथ ये विभावरी थोड़ी मुकर रही है
कच्चे - पक्के ख्वाबों का इक इंतजार निगाहों में
ख़ामोश विभावरी लबों से आज बा-ख़बर रही है

चंद अल्फ़ाजों को प्रश्नों में समेट कर रखें हुए है
इन अश्कों में विरह की विभावरी यूं ठहर रही है
ये बग़ावत गुजरते हुए वक़्त के कतरे - कतरे में
चारों तरफ विभावरी की कहानी की ख़बर रही है

यूं ही नहीं इसके - उसके मिज़ाजों के रंग - रूप में
विभावरी की मुलाक़ातें आजकल ज़ख़्म-गर रही है
तमाम इल्ज़ामों का आईना ख़ामोश है विभावरी में
आखिरी सांसों का हिसाब-किताब उम्र-भर रही है

एहसास-ए-बेफ़िक्री गुज़र रही है ऐसे संवेदनाओं में
विभावरी में जज़्बातों की भी इक नज़र-गुज़र रही है
यूं ही नहीं है वक़्त के ये मुसाफ़िर नींद की आगोश में
मेरे सिरहाने से होकर ये विभावरी तन्हां मुकर रही है

हसरतों की तमाम रंजिशें करवटों की उलझनों में
ये विभावरी ख़ामोशी से गुनगुनाती हुई गुज़र रही है
ना जाने कितने ख्वाइशों की उल्फ़त है इन आंखों में
ये हसीन विभावरी कुछ इस तरह चाँद-नगर रही है

{विभावरी :- रात्रि/ तारों वाली रात ,
ज़ख़्म-गर :- ज़ख़मी करने वाला}

© Ritu Yadav
@My_Word_My_Quotes