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मेरा मुक़द्दर
👉 बह्र - बहर-ए-रमल मुसम्मन महज़ूफ़
👉 वज़्न - 2122 2122 2122 212
👉 अरकान - फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाएलातुन फ़ाइलुन

जिंदगी में बे-मज़ा हर एक मंज़र हो गया
मर गई इंसानियत इंसान पत्थर हो गया

कुछ तरसते रह गए दो बूँद पानी को यहाँ
तो कहीं पर देखिए हर-सू समंदर हो गया

फ़िर रहा आँखें दिखाता बाप को बेटा वही
बाप की मेहनत के दम जो आज अफ़सर हो गया

मख़्मली कंबल रज़ाई ओढ़ कर कुछ सो गए
और कुछ के वास्ते फ़ुटपाथ बिस्तर हो गया

जिंदगी तन्हा गुज़ारी आज तक मैंने जहाँ
तेरे आते ही वो टूटा सा मकाँ घर हो गया

हो गई ढलते ही सूरज के ज़ियादा रौशनी
यूँ क़मर उभरा कि हर ज़र्रा उज़ागर हो गया

तुमसे मिलकर जिंदगी लगने लगी है जिंदगी
है मुक़द्दर ये कि तू मेरा मुक़द्दर हो गया

लोग डरते हैं मुहब्बत से जहाँ में 'शाद' अब
नफ़रतों का आज हर इंसान ख़ूगर हो गया
© विवेक ठाकुर 'शाद'

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