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आओ कुछ फूल बिछा दें:-
बच्चिओं,औरतों के लिए कांटे बिछाने की रूढ़ियों को तो परम्परा कहा ही गया है।
आओ कुछ फूल बिछा दें पैरों को आराम देने के लिए।
रिश्ते नातों के नाम पे बहुत डराया ,धमकाया गया सदियों तक।
आओ कुछ तो बिना डरे करना उन्हें सीखा दें।
नौ माह असीम पीड़ा सह कर
घर और बाहर सब कुछ जीत लेने की जी तोड़ मेहनत हमेशा ही दी है उसने।
आओ थोड़ा सा सुकून की सांस का आराम उसे भी लेना याद दिला दें।
हमेशा पाने के स्वार्थ के लिए लक्ष्मी ,देवी का स्थान तो देते ही आए ,मानव समझना तो भूलते आए ही हैं हम।
आओ इस बार ये सारी अपेक्षाएं पुरुषों से कर ली जाए,कहे, अनकहे त्याग एक देवता की तरह पुरुष भी कर जाएं स्त्रियों की तरह।
कर जाएं हर स्त्री को अपनी छांव में सुरक्षित।
जिन बदलाव की यात्रा अधूरी चल रही निरंतर,हो जाए वो सदा के लिए पूरी।।

समीक्षा द्विवेदी

© शब्दार्थ📝