...

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जीवन और मृत्यु
एक नदी के
दो किनारों की तरह हैं
जीवन और मृत्यु,
सदैव चलते हैं
एक दूसरे के समानान्तर..
एक के होने से ही
दूसरे का अस्तित्व परिभाषित है..

प्रवाहित होता है प्राण
अनवरत निरंतर
कभी स्वछंद उच्श्रृंखल झरने सा
तो कभी शांत शीतल
गहरी नदी सा..
सिंचित होता है चेतना का बीज
मन की उर्वर भूमि पर
उग जाते हैं विचारों के जंगल
मानवता के खेत
अनुभूतियों के फल फूल,
जो प्रतिबिंबित करते हैं
देह में जीवन,
विस्तृत होकर
जीवन और मृत्यु की
सीमाओं से परे..

अन्ततः,
नदी मिल जाती है
सागर से
एकांगी हो जाते हैं किनारे
नदी हो जाती है
स्वयं सागर..
तटों की सीमाओं में
प्रवाहित प्राण
समाहित हो जाता है
अनंत असीम ऊर्जा प्रवाह में..

जीवन और मृत्यु,
दोनों ही समाप्त हो जाते हैं
और,
दोनों ही शाश्वत रह जाते हैं।।


© आद्या