...

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वो....
सर्दी की सुबह की धूप के एहसास सा है वो।
अच्छा लगता है, उसके साथ होना,
मेरे लिए कुछ खास सा है वो।
हूँ रेत के जंगल का भटका सा मृग मैं,
मेरी कभी ना बुझने वाली प्यास सा है वो।
है भीग जाना जिसमे, इस दिल की एक ख़ाहिस,
मेरे लिए सावन की उस बरसात सा है वो।
दो अलग अलग जिस्म है हमारे,
पर वो मुझे खुद का हिस्सा सा लगता है।
हम दोनों की ही है दो अलग कहानियाँ,
पर वो मुझे मेरी कहानी का एक हिस्सा सा लगता है।
उसे पाना बस ख़ाहिस नहीं है दिल की,
मेरे सर पे चढ़ा जूनून सा है वो।
भूल जाता हु हर गम अपना, उसके पास आते है,
इस दिल के लिए, सुकून सा है वो।
मैं भोर का हु मुसाफिर कोई,
हर तरफ फैली धुंद सा लगता है वो।
मै शाम हु कोई सुरमई,
मुझे अपनी सुगंध सा लगता है वो।
मुमकिन नहीं है उसका मेरा होना,
फिर भी ये दिल ना जाने क्यों उसके लिए रोता है।
वो कहते है ना..
लाख कोशिसो के बाद भी,
काफिरों का कोई खुदा कहा होता है।

© sumit123