वक़्त की अहमियत
जब नज़रों के सामने थे हम,
तब उन्हें अहमियत नहीं थी हमारी,
अब हम लापता है उनकी दुनिया से,
और वो तलाशते है हमें,
खाली जगहों पर हमारी।
जहाँ पहले रुक कर बातें,
करने का वक्त था नहीं उनके पास,
अब वही बहाने ढूँढ़ते है,
हमारी बातों के लिए।
जहाँ पहले तस्वीरों में ना शामिल,
होने का बहाना बार बार करते थे,
अब वही ढूँढ़ते है,
तस्वीरें साथ की हमारी।
हमारी चुप्पी ने बताया उन्हें,
की थे क्या हम उनकी ज़िंदगी में,
अब क्या फायदा उस वक़्त को ढूँढ़ने का,
जो बीत गया कबका।
गुजरा हुआ कल था साथ हमारा,
जब तक तुम्हें अहसास हुआ मेरे जाने का,
तब तक मैं बाहर निकल आयी,
उन ईश्क के भारी ज़ज़्बातों से।
कुछ वक़्त तुम भी गुजारों,
उन यादों में,
जिसमें थे साथ हम,
तुम्हें भी तो पता चले,
कि उस अंधेरे कमरे में कितना रोये है हम।
उनकी बातें दिखाती है,
खलती कमी हमारी,
हम लौट आये पास उनके,
नजरें हर बार बताती हैं।
हज़ारों महफ़िलों में बैठे,
ज़ाम लगाते बार बार है,
पर कमी हमारी खलती उन्हें,
हर शाम है,
वो जाम नशा नहीं देती,
उनके मर्ज़ की दवा नहीं बनती,
वो कहते है कि अब क्या करू,
कैसे निकालु अपनी ज़िंदगी से,
ऐसी गम भुलाने की जाम नहीं मिलती,
और वो है की हमारी तस्वीरों से नहीं निकलती।
वापस भी नहीं आती,
और यादों को भी नही ले जाती,
वो चाहती है की शायद,
यादें सज़ा बने उसके जानें की,
मैने संभाला नहीं उसके ज़ज़्बातों को तब,
और अब वो मुझे नहीं संभालना चाहती।
© shivika chaudhary
तब उन्हें अहमियत नहीं थी हमारी,
अब हम लापता है उनकी दुनिया से,
और वो तलाशते है हमें,
खाली जगहों पर हमारी।
जहाँ पहले रुक कर बातें,
करने का वक्त था नहीं उनके पास,
अब वही बहाने ढूँढ़ते है,
हमारी बातों के लिए।
जहाँ पहले तस्वीरों में ना शामिल,
होने का बहाना बार बार करते थे,
अब वही ढूँढ़ते है,
तस्वीरें साथ की हमारी।
हमारी चुप्पी ने बताया उन्हें,
की थे क्या हम उनकी ज़िंदगी में,
अब क्या फायदा उस वक़्त को ढूँढ़ने का,
जो बीत गया कबका।
गुजरा हुआ कल था साथ हमारा,
जब तक तुम्हें अहसास हुआ मेरे जाने का,
तब तक मैं बाहर निकल आयी,
उन ईश्क के भारी ज़ज़्बातों से।
कुछ वक़्त तुम भी गुजारों,
उन यादों में,
जिसमें थे साथ हम,
तुम्हें भी तो पता चले,
कि उस अंधेरे कमरे में कितना रोये है हम।
उनकी बातें दिखाती है,
खलती कमी हमारी,
हम लौट आये पास उनके,
नजरें हर बार बताती हैं।
हज़ारों महफ़िलों में बैठे,
ज़ाम लगाते बार बार है,
पर कमी हमारी खलती उन्हें,
हर शाम है,
वो जाम नशा नहीं देती,
उनके मर्ज़ की दवा नहीं बनती,
वो कहते है कि अब क्या करू,
कैसे निकालु अपनी ज़िंदगी से,
ऐसी गम भुलाने की जाम नहीं मिलती,
और वो है की हमारी तस्वीरों से नहीं निकलती।
वापस भी नहीं आती,
और यादों को भी नही ले जाती,
वो चाहती है की शायद,
यादें सज़ा बने उसके जानें की,
मैने संभाला नहीं उसके ज़ज़्बातों को तब,
और अब वो मुझे नहीं संभालना चाहती।
© shivika chaudhary