...

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तब... तुम आना प्रिय...!
अभी तो लड़खड़ा रहे हैं
मेरे शब्दों के कदम
भावों को भी हृदय की उलझनों ने
भ्रमित किया है...

मैं सोच की सीमाओं के उधेड़ कर
खुले छोड़ दूँ... किनारे...
ठहरो तो सही... कल्पनाओं में लगा लूँ मैं ज़रा...
हिम्मतों के कुछ और पैबंद...

मैं साध लूँ जब...
अपनी इन तितरी-बितरी सी
कविताओं का सुर...
तब तुम आना प्रिय...!

परती जमीन सा अभी,
बंजर हुआ है मन
क्षण क्षण बीत रहा है बहुत रुक रुक कर
समय के पलों को काटता हुआ...
जैसे ख़ंजर हुआ है मन...

मैं बांध लूँ जब...
अपनी किस्मत के पल्लू में एक बीज़ प्रेम का
बनने को लालायित हो...
हरसिंगार-पुष्प.... नव-अंकुर...

सुनो... कि फिर एक बार मैं
समय की सब कसौटियों...