...

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तब... तुम आना प्रिय...!
अभी तो लड़खड़ा रहे हैं
मेरे शब्दों के कदम
भावों को भी हृदय की उलझनों ने
भ्रमित किया है...

मैं सोच की सीमाओं के उधेड़ कर
खुले छोड़ दूँ... किनारे...
ठहरो तो सही... कल्पनाओं में लगा लूँ मैं ज़रा...
हिम्मतों के कुछ और पैबंद...

मैं साध लूँ जब...
अपनी इन तितरी-बितरी सी
कविताओं का सुर...
तब तुम आना प्रिय...!

परती जमीन सा अभी,
बंजर हुआ है मन
क्षण क्षण बीत रहा है बहुत रुक रुक कर
समय के पलों को काटता हुआ...
जैसे ख़ंजर हुआ है मन...

मैं बांध लूँ जब...
अपनी किस्मत के पल्लू में एक बीज़ प्रेम का
बनने को लालायित हो...
हरसिंगार-पुष्प.... नव-अंकुर...

सुनो... कि फिर एक बार मैं
समय की सब कसौटियों पर
खुद को आजमाना चाहती हूँ...

जानती हूँ...
हथेलियों पर उगती नहीं सरसों
मैं वट वृक्ष... पीपल... और कचनार
उपजाना चाहती हूँ

सुन तो सही... कि...
मेरी पहुँच से दूर हुए हैं ये जो चाँद तारे...
इन्हीं के उस आसमान को
मैं थोड़ा सा...
झुकाना चाहती हूँ...

तुम्हारे आने पर बेफिक्र हो कर
खोल देना चाहती हूँ मैं
द्वार मन के...
मैं स्वयं ही स्वयं को तब
गुनगुनाना चाहती हूँ
तुम्हारे प्रेम की गज़ल बन के!!

तब तुम आना प्रिय,जब नभ पर
मैं लगा दूँ जुगनूँओं जमघट
हाँ... तब देह से परे...

मन की उस उजली उजास में...
सब पल जीवन के
बीत जाएं जब...

सावन... जीवन के
सब रीत जाएं जब
बस मुट्ठी भर सासों के वेग हों
जब बचे हुए मेरे पास में...

तुम आना प्रिय...
जब मैं बिछा दूँ तुम्हारे आगमन पर
सुनहरे तारे टंकी चादर... अंबर पर...

तब मैं मुक्त कर दूँगी... इन्हें,
मेरी कविताओं को बांधने की जिद़ पर
ठहरे हुए ये सब छंद...

हाँ... तब तुम,मेरे जीवन में
सदियों का संग बनकर आना प्रिय...!

© मैं... शब्द-वंदिनी,मन-बंदिनी ✍️