मैं और मेरी परछाई...!!!
मैं और मेरी परछाई, साये से जुड़े हैं कहीं,
वो संग चले, जब मैं चला, रुके तो ठहरे यहीं।
धूप की किरनें जब चमकीं, तो वो खिल उठी,
और रात की स्याह चादर में, वो मुझसे सिमट झूम उठी।।१।।
चुपचाप, मौन, कोई आवाज़ नहीं उसकी,
सिर्फ मैं हूँ और मेरी छाया, मेरे संग हर घड़ी।
न कोई शिकायत, न कोई सवालात उसके पास,
बस, मेरी हर ख़ुशी में शामिल, और हर ग़म में उदास।।२।।
जब मैं गिरता, तो वो भी बिखर जाती साथ में,
और जब खड़ा होता, तो फिर सीधी खड़ी दिखती राह में।
कभी लम्बी, कभी छोटी, समय के संग बदलती,
कभी पास, कभी दूर, ये दुनिया...
वो संग चले, जब मैं चला, रुके तो ठहरे यहीं।
धूप की किरनें जब चमकीं, तो वो खिल उठी,
और रात की स्याह चादर में, वो मुझसे सिमट झूम उठी।।१।।
चुपचाप, मौन, कोई आवाज़ नहीं उसकी,
सिर्फ मैं हूँ और मेरी छाया, मेरे संग हर घड़ी।
न कोई शिकायत, न कोई सवालात उसके पास,
बस, मेरी हर ख़ुशी में शामिल, और हर ग़म में उदास।।२।।
जब मैं गिरता, तो वो भी बिखर जाती साथ में,
और जब खड़ा होता, तो फिर सीधी खड़ी दिखती राह में।
कभी लम्बी, कभी छोटी, समय के संग बदलती,
कभी पास, कभी दूर, ये दुनिया...