आज का इंसान
कैसी कलियुग की यह मार रही
अपनों पर करती वार रही
रिश्तो का सम्मान रहा
ना अपनों का कोई मान रहा
वक्त को दोष दे रहे
पर इंसान ना इंसान रहा ...
रिश्तो की मर्यादा भूल,
पैसों के पीछे भाग रहा
मन की सुंदरता त्याग कर
तन की सुंदरता आंक रहा
माता-पिता अब बोझ लगे
परमपिता को खोज रहे
उनकी सेवा.. वह भार लगे
दुनिया में करने दान चले
बहन बेटी की ना लाज रखे
उनकी इज्जत का ना मान रखे
चरित्रता को त्याग रहे
क्या क्या करते अपराध रहे
वक्त को दोष हम दे रहे
पर असल में इंसान ना इंसान रहे
[हम कहते हैं कि वक्त बुरा आ गया पर क्या इतना कि वह इंसानियत खा गया]
© ...
अपनों पर करती वार रही
रिश्तो का सम्मान रहा
ना अपनों का कोई मान रहा
वक्त को दोष दे रहे
पर इंसान ना इंसान रहा ...
रिश्तो की मर्यादा भूल,
पैसों के पीछे भाग रहा
मन की सुंदरता त्याग कर
तन की सुंदरता आंक रहा
माता-पिता अब बोझ लगे
परमपिता को खोज रहे
उनकी सेवा.. वह भार लगे
दुनिया में करने दान चले
बहन बेटी की ना लाज रखे
उनकी इज्जत का ना मान रखे
चरित्रता को त्याग रहे
क्या क्या करते अपराध रहे
वक्त को दोष हम दे रहे
पर असल में इंसान ना इंसान रहे
[हम कहते हैं कि वक्त बुरा आ गया पर क्या इतना कि वह इंसानियत खा गया]
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