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डर की दुनिया
कर्म ही जग की राह, चलने वाले जिसके सम्मुख जन अनेक है

चलते चलते कोई चट्टानो से, टकरा गिरे, कोई संभले चले देख है

यहीं से इसकी उत्पती होती, शिकार अक्सर, वो जो हार जाता है

कुछ मात दे उबरते, तो किसी का आधे जीवन गुजार जाते है



मन को वज़न होता महसूस, हात ,पाव थर-थर लड़खड़ाते है

बेचैनी फैल जाती जैसे अंधेरा, मन में अनेक पक्ष बक बकाते है

वो जो होनी, कार्य चाहते ना हो,...