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डर की दुनिया
कर्म ही जग की राह, चलने वाले जिसके सम्मुख जन अनेक है

चलते चलते कोई चट्टानो से, टकरा गिरे, कोई संभले चले देख है

यहीं से इसकी उत्पती होती, शिकार अक्सर, वो जो हार जाता है

कुछ मात दे उबरते, तो किसी का आधे जीवन गुजार जाते है



मन को वज़न होता महसूस, हात ,पाव थर-थर लड़खड़ाते है

बेचैनी फैल जाती जैसे अंधेरा, मन में अनेक पक्ष बक बकाते है

वो जो होनी, कार्य चाहते ना हो, उसके संभावना बढ़ जाते है

सुखमौन गला बन जाए,आँख अनचाहि अगपल दृश्य दिखाते है



कहीं मिलता यह बातों में, कहीं मुलाक़ात होती इसकी कामों में

जो पार पाले इससे वो विजेता, जो कर रहा,कोशिश वो लडाको है

सोचो तो हर जगह ही है, जिसे फरक नही पड़ता, उन्हें चलता है

जो सोचता ज्यादा अगर, कोई डर जाता, तो कोई संभालता है


यह डर नहीं, एक अंधेरा है, जिसका उजाला तू खुद अकेला है

लड़ाई तो हर कोई लड़ रहा है, यह तो इंसान जाल का मेला है

धर्ये रख तू,हार ना मान जल्दी, इतिहास खातिर एक क्षण काफी है

हार गया तो? फिरसे कोशिशों की देर लगादे,जिंदगी बहुत बाकी है

बोलेपंक्तियां©