...

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आदत–ए–खौफ,,,
रातों का खौफ,,,
दिन का खुमार,,
अकेले होने का डर,,
उसकी वो फिक्र,,
एक झुटी आस,,
और,,, ये टूटती हुई डोर,,

हर रोज, हर पल,,
ये खौफ सताता है,, की,,
एक दिन,,,,, एक दिन ये डोर टूट जायेगी,,
मेरी आखिरी उम्मीद भी छूट जायेगी,,
फिर सारी दुनिया मुझसे रूठ जायेगी,,
फिर क्या मैं,,,,, जी पाऊंगी?
हर पल,, इस सवाल से जूझती हूं,,
की कहीं मैं मर तो न जाऊंगी,,
मर ही तो ना पाऊंगी,,

की रोज खुद को दिलासा देती हु,,
मैं हकीकत को झूठला रही हूं,,
मैं खुद को ही बहका रही हूं,,
वाकिफ हूं हर सच्चाई से,,
फिर भी खुद को उलझा रही हूं,,

वो जो फिक्र में मेरी घूलती जा रही है,,
यादें सारी धूलती जा रही है,,

आखिर कब तक रोकूंगी मैं इस बात को,,
कभी ना कभी तो इसे सच होना होगा,,
एक दिन इस फिक्र को भी खत्म होना होगा,,
फिर हम अलग होना होगा,,

तो क्या,, हमारा साथ फिर छूट...