...

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रो पड़ी जिंदगी...
कहर ऐ मुफ़लिसी ने कुछ यों किया सभी को तबाह,
कि कहीं किसी की शादी रुकी किसी का रुका निकाह..

ले आंचल में बच्चे को मजबूर माँ इधर उधर भटक रही
चीखते बिलखते नन्हें सी जां को सीच अपने सुखे पड़े स्तनों से रही..

भर आंखों में आसुओं को फ़रियाद वो लोगों से कर रही
भीख नही.. काम कर कुछ.. चंद पैसा कमा..
पेट अपना और अपने बच्चे का पालना वो चाह रही...

विवश वो पेट की अग्नि में सर्वस्व स्वाहा करने को तैयार
वो चंद सिक्के भुख मिटाने खातिर अपने दुधमुंहे बच्चे खातिर चाह रही...

कुछ गिद्ध भांति फिर रहे उसके आस पास,
जो सिक्कों के बदले असमत पर डालना चाह रहे उसके हाथ...

कि मींज हाथ वो मजबूर माँ शिकवा शिकायत किससे करती
हाकिम ही अमादा हो जब इज्ज़त को करने उसकी तार तार...

सितम ऐ मंजर ऐसा देख कर पत्थर दिल भी पिघल गया
कूट पीट इलाज़ हाकीम का लोगों ने फिर ख़ूब कर दिया

पर निष्प्राण हो वो बन तमाशा राह में पड़ी थी
लुटा सबकुछ अब वो चैन से बन मिट्टी इस बेरहम मिट्टी में जा मिली थी

जब तक थी जिंदा भटकती रही ले लाल को गोद में
आज अनाथ हो वो भी गिरा पड़ा है धरा की गोद में
देख हालात ये खोफ़ में है जिंदगी, कि रो पड़ी जिंदगी..
© दी कु पा