...

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“ एक मानव ऐसा भी “
जन्म पर मेरे तू दीप क्यों नहीं जलाती मां |
हर बच्चे की मां जैसे तू मुझे क्यों नहीं अपनाती मां ||
पशुभी अपना हर बच्चा अपनाता है मां |
तो तू् मुझे क्यों अंजान गली छोड़ जाती है मां ||
हर बच्चे के दुःख में रोती है उसकी मां |
जब दर्द हो उसे तो उसकी दवा होती है मां ||
तू् क्यों मुझे दःखु में छोड़ जाती है मां |
क्यों इस दुनिया से इतना दर्द दिलाती है माँ ||
कर यकीन मैं भी तेरी ही जिस्म का टुकड़ा हूँ |
देख लिए मैं भी पिता सा मुखड़ा हूँ ||
मेरे किसी अपने की जुबा पर मेरी बात नहीं होती |
एक तेरे छोड़ देने से दुनिया में कोई औकात नहीं होती ||
दुसरो के लिए हॅसना दुसरो के लिए गाना |
दुसरो की ख़ुशी में अपनी ख़ुशी मानना ||
न कोई घर मेरा न कोई अपना मेरा |
न कोई धर्म मेरा न कोई सपना मेरा ||
न डर इस बात का की अपने रूठ जाएंगे |
न डर इस बात का की सपने टूट जाएंगे ||
न पुरुष सा कठोर न नारी सी कोमलता |
न मेरी जायज लगती किसी को कामुकता ||
अपाहिज कमजोरी से तो नारी सुरक्षा को परेशान |
लावारिश अपनों की खोज में तो पुरुष दक्षता को परेशान ||
मेरे पास ऐसी साडी परेशानी है |
मेरी ज़िंदगी बस दर्द की कहानी है ||
मैं दुसरो की ख़ुशी में गाउँ तो बदनाम |
दुनिया समझती लायक नहीं की कर सकू कोई काम ||
बुरे वक्त की खासियत की वो भी गुजर जाता है |
पर नसीब मेरे की वक्त मुझसे जुड़ते ही बुरा हो जाता है ||
आज एक गुजारिश है मुझे मेरी पहचान दे दो |
मानवता के नाम ही सही मुझे भी मानव नाम दे दो ||

© Gayatri Dwivedi

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