शाश्वत का इश्क़ इकतरफ़ा नहीं रहा
जो गया छोड़ के उसको बुलाऊँ कैसे,
हाल अपना उसको बताऊँ कैसे,
शिकायत करूँ उन लम्हों से या ख़ुदा से,
इस इकतरफ़ा इश्क़ को जताऊँ कैसे?
अब उसकी गलियों में जाऊँगा कैसे,
नज़रें बालकनी पर लगाऊंगा कैसे,
बेवक्त जो चला जाता था उस कूचे में,
अब उस कूचे से आँख मिलाऊँगा कैसे?
कोई पूछे कि जो थे कल तक एक
वे आज़ अलग क्यूँ हैं?
तो क्या बताऊँगा उन्हें,
यही,
इज़हार-ए-मोहब्बत का सितम है ये,
या
मेरे इकतरफ़ा इश्क़ की सज़ा।
लेकिन इसमें तेरी...