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वो वाली बात कहाँ
वो वाली बात कहाँ

सरपट भागती ज़िन्दगी में,
बचपने के वो आराम कहाँ ।
शहरों की आपाधापी में,
गाँवो जैसी सुबह और शाम कहाँ ।

अनेको व्यंजनों से सजी थाली में ,
मइया के रोटी वाली मिठास कहाँ।
साथ देने को तो बहुतेरे हैं मगर
कदम कदम पर ठोकरों से संभाले,
पिताजी वाले हाथ कहाँ।

पल में टूटते पल में जुड़ते दिलों में
वो पहली नज़र का प्यार कहाँ।
दारू तो जैसे अब हमसफ़र ही है अपनी
मगर दोस्तों संग लगाए वो जाम कहाँ।

घर में दिन भर चलते टीवी,
मगर रेडियो पर खरखराती आवाज़
वाले वो समाचार कहाँ।
अब तो दिन गुजरता है घर दफ्तर के चक्कर में
मगर सुकून के दो पल वाले,खेतों के मचान कहाँ।

बीतने को तो यूँ है, कि हर दिन कट ही जाता है
मगर हॉस्टल में जग कर बिताईं वो रात कहाँ,
और हँसी ठिठौली को तो मिलते बहुत हैं
लेकिन जो उन यारों संग धमाचौकड़ी मचाई
वैसी वाली बात कहाँ।