...

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मंथन और चिंतन
देखा जब भी
भीतर-बाहर
जेब में उतरे हाथ में
किसी पार्क की
कोने वाली बेंच पर
स्वप्न में, जागती आँखों में
गज़रे की महक और
बढ़ते बदन की चमक में
सावन की दस्तक या
संध्या की आहट में,
नज़र आता है हर ओर
एक तड़पता सा चिंतन,
माथे पर बल
देता बस मंथन।
चाहे बेड़ियां तोड़ने वाला हो
या हो सदियों का बंधन,
पवन, के बुझाये नहीं बुझता
धूँ-धूँ कर जलता ही रहता है,
दिनो-दिन बढता है
घटता नहीं
हाथों से भरकर उलीच
देना चाहें फिर भी हठात्
झाँकता है बुद्धि के
चिरंतन प्रहरी सा
ये सतर्कता से कब से
खड़ा मंथन और अथाह चिंतन।

--Nivedita