...

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व्यथा... कर्म संसार की,जीवन की अविरल प्यास की
प्रणाम प्रभूजी,
क्यों प्रभूजी,
माया से अपनी बाँधकर,
सुंदर सुंदर माटी के इन खिलौनों में,
खुद को बसाकर,तुम कहते हो...
ढूंढो मुझकों...
और मुझ नीरस में,
फिर से नवीन प्राणों का संचार कर...
तुम कहते हो.. पा लो मुझको...
मैं दर्द सारे बिसराकर जब शरण,
तिहारी आयी थी...
जब पग पग तुमने मुझको,
आँचल में अपने समेटा था...
तो आज किस कारण...
माया बन्धन बीच में आन पड़े,
न राह हैं, न आसरा इनमें... ये सब बस भ्रम हैं, और भ्रम ही जान पड़े,
तेरी चौखट पे सिर रखकर,
जब हम खुद को ख़ुशनसीब समझते हैं..तो बताओ प्रभूजी....
तेरे बिन कैसे इस रूह को ,
एक पल भी चैन पड़े...
ये माया संसार ...
अंधकार सा...