...

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इश्क की है दुनियां मुकम्मल नहीं
छूट गई मुझसे अब महफिल
क्या करना अफसानों का
देखा है मैने इसी दुनिया में
क्या हाल हुआ दीवानों का।।

सुबह शाम मारे फिरते थे
एक झलक जो पाने को
गम के दरिया में हैं डूबे
औंधे मुंह मयखाने को
इश्क की दरिया पार करे जो
दुनियां है इन मस्तानों का
छूट गई मुझसे अब महफिल
क्या करना अफसानों का।।।।।

मौत से क्या डरना उनका
जिनका अपना संसार अलग
तस्वीर लिए फिरते दिल में
चाहत का है परिवार अलग
रब ढूंढते इश्क की बस्ती में
गला घोंट अपने अरमानों का
छूट गई मुझसे अब महफिल
क्या करना अफसानों का।।।

जब से हुआ है जुदा ये दिल
दिन रात ही रोता रहता है
कुछ भी लगता अच्छा सा नहीं
हर पल ये आहें भरता है
मिलती है कहां मंजिल सबको
क्या हाल है होता परवानों का
छूट गई मुझसे अब महफिल
क्या करना अफसानों का।।।।
© Abhi