...

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अनवरत
हम अनवरत हैं उस मोङ पर
मिलती न मंजिल फिर भी जिस मोङ पर
चला इस सोंच में कि मिलेगा परिंदा कोई
पर यूँ अनजान था हर इक मोङ से ऐसे
गिर पाता है खोकर मोङ झरना जमीं पे जैसे ।

सोंचा कि है साजिश किसी की
यूँ गिराने री यूँ उठाने की
पर दिया दस्तक किसी ने वक्त पर
हुआ चरित्र बोध प्रकृति का उस वक्त पर ।

अब चलता हूँ बाधाओं से अनजान बनकर
हर इक मोङ पर
चाह होती है रौंद दूँ हर इक काँटे को
उस मोङ पर,उस मोङ पर
हाँ उस मोङ पर ।

© ya waris