...

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" द्रौपदी-चीरहरण "
चल रही धूत-क्रीड़ा,
धृतराष्ट्र सभा में,
होता मध्य खेल,
कौरव व पांडव शूरवीरों में,
पर स्वामित्व पाए,
शकुनि के पासो में,
हारे युधिष्ठिर समस्त संपत्ति,
स्वयं व अनुजों को संग में!

अब ना कुछ भी शेष,
लगाने को दाँव पर,
कह युधिष्ठिर दुर्योधन से,
गया थम घड़ी-भर,
परंतु भाव प्रतिशोध के,
यकायक उभरे कर्ण के भीतर,
कि करें अपमानित अहंकारी द्रौपदी,
यही है अवसर बेहतर!

फस दाम-ए-हिर्स में,
लगा दी दाँव पर द्रौपदी बिन सोचे क्षण-भर,
और पाते पराभव,
पांडव चक्षुओं में आती लज्जा भर,
एक वसन में लिपटी सुकेशी,
दु:शासन खीचे केश जाते बिखर,
करती अनुनय रजस्वला द्रौपदी,
व भरती भरतवंश व रिश्तो की मर्यादा उसके भीतर!

पर लाकर खीच किसी पशु की भांति,
दु:शासन राजसभा में खड़ा,
दु:शासन संग द्रौपदी को देख,
शर्म से आंखें लीं सबने गडा,
गूंजती आर्तनाद एक स्त्री की,
और दीवान-खाना पुरुषों से भरा पड़ा,
पर बैठा हर कोई करे चक्षुओं को नीचे,
व मुख पर ताले जडा!

टूटी मर्यादा सब वाणी की,
पर तुच्छता की सीमा तब पार हो जाए,
जब कहे दुर्योधन पांचाली से,
कि वो उसकी जंघा पर आसन पाए,
करे अपमानित कह पांच पतियों वाली,
व चीर-हरण का उसके निर्देश सुनाए,
और दु:शासन ने भी किसी नाग की भांति,
द्रौपदी वसन की ओर थे कर बढ़ाए!

कुलमर्यादा की रक्षा हेतु,
जब...