...

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नाराज़गी
नाराज़ थे हम,
ये जानते हुए भी उन्होंने नाराज़ हमें रहने दिया,
वो पुछने भी ना आये नाराज़गी मेरी,
और ना मुझे नाराज़गी जताने का मौका दिया,
उन्होंने मुस्कुरा कर नाराज़गी को मेरी,
फालतू की बातें समझ कर,
कचरे के डिब्बे में डाल दिया।
कुछ दिनों बाद मिले एक रास्ते पर थे,
थोड़ी देर टाला एक दूसरे को,
पर जब नजरें मिली तो,
खुद को रोक लिया।
बात करते क्या ये,
सोच रहे ही थे कि,
उनकी तिरछी हँसी ने तंज कसा,
क्या हट गई नाराज़गी तुम्हारी,
या नाटक तुम्हारे चालू अभी भी हैं।
मैनें गुस्से में कहा,
तुमने पूछा तक नहीं नाराज़गी की वजह मेरी,
और अब मजाक बनाते हो मेरी नाराज़गी का।
फ़िक्र करने का दिखावा अच्छा करते हो,
बिना हमारी बातों के भी,
तुम्हारा समय बीतता अच्छा हैं,
तो क्या मतलब हैं,
इस दोस्ती का हमारी,
जब मेरे बात करने या,
ना करने से तुम पर फ़र्क कुछ नहीं पड़ता हैं।
कंधे पर हाथ रख कर बोला,
अरे यार, गुस्सा क्यु होती हैं,
मालूम हैं मुझे,
तेरी नाराज़गी कितने दिन ठहरती हैं,
तुझसे वजह पूछूँ या ना पूछूँ,
तु अपना गुस्सा लिए,
अपने कमरे में बंद रहती हैं।
जब नाराज़गी उतर जायेगी तेरी,
तु ख़ुद चेहरा मुस्कुराता लिए,
मेरी नज़रों के सामने आ जायेगी।
मैं यहीं हू,
इंतज़ार करता तेरा बगीचे की घास पर,
क्या देखने के लिए मुझे तूने,
एक बार भी झांका खिड़की से तेरे।
तूने कैसे कह दिया,
कि अहसास नहीं मुझे तेरी नाराज़गी का,
खामोशी तीखी हैं तेरी,
मेरे कानों को आदत हैं तेरी बातों की।
तुझसे मिलने के लिए,
ना जाने बहाने कितने किये,
पर तेरी नाराज़गी है कि,
कम होंने में दिन बड़े लेती हैं।
© shivika chaudhary