...

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इंतज़ार!
कुछ गायब है यूँ अंदर से
कुछ सूना सा है....
ये वक़्त का मंजर कुछ फीका सा है
हर घड़ी बदल रही है वक़्त की परिभाषा..

फँस गए हैं कहीं
अपने ही बनाए इन रेत के महलों में...
सपने सपने नहीं
वक़्त के क़ैदी हो चले हैं....

वक़्त से वक़्त को उधार लेते हैं
हर एक लम्हे इन सपनों को पाने की कोशिश करते हैं
जितना ही ज़ोर से इन्हें पकड़ते हैं
ये रेत की तरह हाथों से फिसलते हैं....

पता नहीं इस वक़्त की दौड़ में
किस जहाँ तक पहुँचेंगे.....
जो छूट गया है पीछे
जाने फिर कब पीछे मुड़ के देखेंगे!
© abhiraj