...

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स्त्री सोचती बहुत है...
स्त्री झाँक पुरुष के आंखों में भाप लेती है उसकी औकात
समझ लेती है उसकी बेबसी और लाचारी..
साथ पढ़ लेती है उसके अंदर छिपी मक्कारी...
क्यों कि स्त्री पढ़ती शान्त हो पुरुष को
वो ना आकर्षित होती है सिर्फ सौंदर्य से
वो सौंपने से पहले अपना सर्वस्व पुरुष को
सोचती है अपना भविष्य बहुत कुछ..
पढ़ती है उसके स्वभाव को उसके व्यवहार को..

पर अब वक्त बदल रहा है
लड़कियां भी लड़कों भांति सोचने लगी हैं
उनको अब दोष नज़र ना आता क्षणिक प्रेम में
वो भी पार्टटाइम प्यार कर अनुभव लेना चाहने लगी है
कपड़ों की तरह प्रेम को अब वे भी बदलने लगी हैं...

कभी लज्जा भूषण होता था महिलाओं का
आज उन्मुक्तता हावी है उनके हर जज़्बात पर
समानता के नाम पर स्त्री के अधिकार पर
अनुभवहीन होते हुए भी ले लेती है कुछ निर्णय
अपनी भविष्य को ले अपनी जिद्द में कुछ ऐसा
जो बरबाद कर देता है उनका हर सपना...

धरी रह जाती है उनकी हर सजगता
श्रध्दा विश्वास फिर टुकड़े में कर बिखरा
दी जाती है जंगलों की धराओं पर...




** Vijaylaxmi Rajpoot जी की कविता से प्रेरित हो...


© दी कु पा