...

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गुजरता वक़्त
गुजरते वक्त के साथ- गजरता हरदम नहीं अहसास
यदि कहीं मजदूर वो ठहरा तो फिर नहीं अवकाश
सुबह जो उठती आस संभलकर
सांझ तलक होती निराश
ज्यों वकुल के‌फूल ढूंढते स्वर्णाभित पलाश
मुझको, मेरे भाव को देते,
जन के आंसू रुप तराश
कभी कभी कुछ लिखने को
सहज ही होती कविता खास।
सुबह उठी थी इस संजोकर
आते पिता नहीं,सांझ उदास।

कवि निशांत।

© Nishant Kumar

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